shahil khan

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छोटे छोटे सवाल –२४

यह प्रश्न बिलकुल सत्यव्रत के मन का था। आवेदन-पत्र भेजते समय उसने क्या-क्या कल्पनाएँ नहीं की थीं! गुरुकुल की शिक्षा अधूरी न रह जाती तो वह समस्त भारत में शिक्षा और संस्कृत का प्रचार करता हुआ घूमता। किन्तु पिता की असमय मृत्यु और माँ की बीमारी के कारण उसे अपने छोटे-से गाँव में लौट आना पड़ा। लड़कपन में जब गुरुकुल गया था तो सत्यव्रत मुश्किल से सात वर्ष का था। बीच-बीच में वह थोड़े दिनों के लिए गांव आता भी रहा, किन्तु अब हमेशा के लिए लौट आया तो उसे बड़ा विषाक्त लगा गाँव का वातावरण । उसका दम घुटने लगा वहाँ। फिर भी उसका दोष उसने किसी को नहीं दिया बल्कि उन परिस्थितियों में भी सत्यव्रत ने अध्ययन जारी रखा। और उसने निश्चय किया कि घर पर ही तैयारी करके बी.ए. की परीक्षा दूँगा। खेती का काम छोड़कर अध्यापन का कार्य करूंगा। मेरे भीतर ज्ञान की छोटी-सी ज्योति ईश्वर ने जलाई है, उसका प्रकाश जब तक जन-जन में नहीं फैल जाएगा तब तक में गुरु-ऋण से मुक्त नहीं होऊँगा। वह अक्सर सोचा करता, 'अहा ! कितना पवित्र कार्य है शिक्षक का, ज्ञान-दान ! दूसरों के जीवन का निर्माण करना, बच्चों को पढ़ाना, अर्थात् आकारहीन पत्थर के टुकड़ों को तराशकर उन्हें एक कलात्मक आकृति प्रदान करना। ऐसी शिलाएँ बनाना जिन पर भावी पीढ़ी की बुनियाद रखी जा सके।

सत्यव्रत ने अक्सर इन्हीं प्रश्नों पर गम्भीरता से सोचा था। अतः प्रश्न का उत्तर देने में कोई असुविधा न हुई उसे। तीनों सदस्य भी पूरी तरह सन्तुष्ट हो गए। लाला हरीचन्द को लगा कि चलो, दोनों में से कोई भी नाराज नहीं हुआ और एक सच्चे हिन्दू को चुनकर उन्होंने धर्म-सबाब का काम किया। वकील या कोतवाल उन्हें क्या देते? कोतवाल तो उनके पास तक नहीं आया !

चौधरी नत्थूसिंह को खुशी थी इस बात की कि अब कोतवाल गनेशीलाला से कांटे ज़रूर निकालेगा। असरार नहीं लिया गया तो श्रोत्रिय भी नहीं लिया जा सका। दोनों में से जीत किसी की नहीं हुई।

गनेशीलाल भी बिलकुल वही सोच रहे थे जो चौधरी नत्थूसिंह ने सोचा था। फर्क इतना था कि नत्थूसिंह की कल्पना में कोतवाल गनेशीलाल को सता रहा था और गनेशीलाल की कल्पना में नत्थूसिंह को।

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